Blissful Life by Krishna Gopal
Letter 03: A letter from Grand Pa to his grandchildren.
Letter 01: What are IQ, EQ, and SQ?
Letter 02: Spirituality Quiescent (to know the creator of the universe and its creation)
Letter 03: Relation between soul and body
Letter 05: भक्ति व ज्ञान मार्ग में अंतर
Letter 08: The future of the country is in the hands of youngsters?
Letter 09: आज की शिक्षा प्रणाली
Letter 10: शिखर पर पहुँचने का रास्ता
Letter 11: भारत दुनिया का अग्रणीय राष्ट्र बनने की कगार पर
Letter 13: ड्रामे का गुह्य रहस्य
आज बाह्य यात्रा के बजाय अंतर्यात्रा पर जाने का समय है

प्रिय बच्चों (ईशा, हर्षित, आस्था, संज्ञा),
आत्मा और शरीर का सम्बन्ध एक अभिनेता (Actor) और उसके वस्त्र (Dress) के समान है। जिस प्रकार एक अभिनेता अपने अभिनय के अनुसार Dress बदलता है, उसी प्रकार आत्मारूपी अभिनेता भी इस सृष्टि रुपी रंगमंच पर अपने अभिनय के अनुसार Dress बदलती है। आत्मा अपने कर्मों के अनुसार एक देह रूपी वस्त्र छोड़कर दूसरा धारण करती है।
इस देह छोड़ने और लेने की प्रक्रिया को ही जन्म-मरण कहा जाता है। वरना आत्मा का न तो जन्म होता है और न ही मरण। जिस प्रकार रंगमंच अभिनेता का घर नहीं होता लेकिन वह अभिनय के लिए अपने घर से आता है उसी प्रकार यह सृष्टि रूपी रंगमंच आत्मा का घर नहीं है। वह भगवान के घर से इस सृष्टि रूपी मुसाफिरखाने में एक मुसाफिर की तरह अकेले आयी है और अकेले ही वापस लौटना है। आत्मा अपने साथ केवल कर्मों का लेखा-जोखा (Balance Sheet) लेकर साथ आती है।
आत्मा का मूल निवास सूर्य, चाँद, तारामण्डल और 5 तत्वों की स्थूल दुनियाँ से बहुत दूर परमधाम है जिसे कई नामों से जाना जाता है जैसे ब्रह्म-लोक आदि।
ब्रह्मलोक – प्रकृति के 5 तत्वों से हटकर एक छठा तत्व “अखण्ड ज्योति ब्रह्ममहतव से बना है। वह सुनहरे लाल रंग से प्रकाशित है। वहाँ असीम शांति है, इसीलिए उसे शान्तिधाम भी कहते हैं।
आत्मा एक चैतन्य शक्ति है (जो सोच विचार कर सकती है, सुख-दुःख व आनन्द का अनुभव कर सकती है, अच्छा या बुरा बनने का पुरुषार्थ कर सकती है।)
आत्मा की चेतन्यता प्रकट ही तब होती है या वह तब ही अनुभूति कर सकती है जब वह शरीर रूपी वस्त्र में इस सृष्टि रूपी रंगमंच या कर्मक्षेत्र पर उपस्थित हो।
आत्मा का यह स्वभाविक कर्त्तव्य है कि वह सृष्टिरूपी रंगमंच पर शरीर रूपी वस्त्र धारण कर कर्म करती रहे क्योंकि आत्मा स्वयं अनादि और अविनाशी है। अतः उसका कर्त्तव्य भी अनादि व अविनाशी है। (अविनाशी = जिसका विनाश नहीं हो सकता, टुकड़े नहीं हो सकते, जो अजर है)
साथ साथ जिस कर्मक्षेत्र पर वह कर्म करती है वह भी अनादि व अविनाशी है।
अतः वह सदाकाल के लिए कर्म से छूट नहीं सकती या मोक्ष प्राप्त नहीं कर सकती।
सार –
आत्मा उसके कर्त्तव्य व सृष्टिमंच तीनों ही अनादि व अविनाशी हैं।
आत्मा का मूल स्वाभाव
हर आत्मा मूल रूप से…
- ज्ञान स्वरूप
- पवित्र स्वरूप
- शांति स्वरूप
- प्रेम स्वरूप
- सुख स्वरूप
- आनन्द स्वरूप
- शक्ति स्वरूप (इच्छाशक्ति) है।
कोई भी कैसा भी व्यक्ति अशांति, दुःख, नफरत नहीं चाहता क्योंकि यें आत्मा के मूल गुण या संस्कार नहीं हैं।
With lots of Love & Affection
Dada
Krishna Gopal
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